यूपी के अलीगढ़-आगरा हाइवे पर चंदपा थाने से करीब 400 मीटर आगे बूलगढ़ी गांव को जाने वाले रास्ते के मुहाने पर बेतरतीब खड़े सौ से ज्यादा लोहे के बैरीकेड्स बताने के लिए काफी हैं कि पिछले दिनों दलित लड़की से कथित सामूहिक दुष्कर्म और फिर इलाज के दौरान उसकी मौत के बाद यहां उमड़े सियासी, समाजी और मीडिया क्राउड को रोकने के लिए कितने तगड़े प्रबंध किए गए थे।
इसी मुहाने से तीव्र घुमावदार संकरी सी मगर पक्की चकरोड दो किमी भीतर बूलगढ़ गांव तक जाती है। फसल कट जाने के कारण रास्ते में दूर तक खेतों में कहीं हरियाली नजर नहीं आती है। इन्हीं में एक खेत पर नई तारबाड़ और किनारे पर पड़े पुराने पुआल के ढेर 14 सितंबर की उस घटना के स्थल का अहसास कराते हैं, जिसका सच जानने को पहले एसआईटी और अब सीबीआई जुटी हुई है।
बूलगढ़ की फितरत बदल डाली
बूलगढ़ी की आबोहवा और सूरत-सीरत किसी आम गांव सी ही दिखती है। दहलीज और मेड़ के झगड़े तो हर गांव में होते ही हैं, मगर इस एक मुद्दे ने मानो बूलगढ़ की फितरत बदल दी है। चौपालों पर अमेरिका से पाकिस्तान तक के हर मसले पर फैसले सुनाने वाले गांव का हर घर आज तटस्थ दिखना चाहता है। गांव के बुजुर्ग रामेश्वर बताते हैं कि सर्दियां आते ही खेत-खलिहानों और चौपालों में सब मिलकर धूप सेंकते और तड़के से ही एक हुक्का गुड़गुड़ाते थे।
कोरोना का खौफ भी इन्हें सामाजिक दूरी के लिए मजबूर नहीं कर पाया, लेकिन घटना के बाद लोगों का व्यवहार बदल गया है। आमने-सामने की चौखटों में भी खाई सा फासला महसूस होता है। सीबीआई की जांच और कोर्ट में भले यह मामला दो घरों के बीच कानूनी मसले के तौर पर देखा जाए, मगर अब पूरा गांव इसकी आंच महसूस कर रहा है। बानगी ये कि सितंबर के अंतिम सप्ताह में एक और अक्टूबर में दो डोलियां गांव में आनी थीं, लेकिन इस कांड के बाद तीनों शादियां निरस्त हो गईं।
वयोवृद्ध कृष्णदत्त शर्मा सामाजिक कारणों से इन परिवारों की पहचान नहीं खोलना चाहते, लेकिन बताते हैं कि पहले लॉकडाउन के कारण गांव के तीनों लड़कों के वैवाहिक कार्यक्रम में विलंब हुआ और अब गांव की बेटी की मौत के बाद अलीगढ़ और आगरा से तीनों रिश्तों को लड़कियों के परिजन ने तोड़ दिया। वे कहते हैं कि इतनी बदनामी के बाद इस गांव में कौन अपनी बेटियों की डोली भेजना चाहेगा। गांव में घुसते ही सबसे पहला घर मुख्य आरोपी संदीप का है।
इसी के दरवाजे से एक किशोरी हर वाहन की आहट पर बाहर झांक कर देखती है। यहां से सड़क बाएं घूमकर आगे गांव में चली जाती है और दूसरी तरफ पीड़िता का घेर (गाय-भैंस बांधने की जगह) और घर है। छह फुट चौड़ी यही सड़क दोनों घरों के बीच का फासला है, जो घटना के बाद काफी बढ़ गया है। पीड़िता के घेर के बीचो-बीच सीआरपीएफ का एक टेंट और घेर से घर के भीतर जाने वाले संकरे रास्ते पर एक मेटल डिटेक्टर लगा है। यहीं बगल में रेत की बोरियों के मोर्चे के पीछे इंसास रायफल, एके-47 और कार्बाइन से लैस कमांडो मुस्तैद हैं।
कुछ घर की गली और कुछ छत पर तैनात हैं। बारीक नजर घुमाने पर छह नाइट विजन सीसीटीवी कैमरे और एक रेडियो कम्यूनिकेशन टावर भी दिख जाते हैं। कमांडर के आदेश पर दो जवान टेंट से निकलते हैं और मेज पर रखे आगंतुक रजिस्टर में हर आने वाले का विवरण, संपर्क नंबर और उद्देश्य दर्ज करने के बाद अगला कदम तय करते हैं। इसके हर पन्ने पर एक ही इंटेलीजेंस अफसर की तीन चार बार हर दिन एंट्री हालात की संवेदनशीलता को बता देती है।
करीब डेढ़ घंटे इंतजार के बाद पीड़िता के पिता, भाई और बुआ कमांडो सुरक्षा में घेर में ही आते हैं। खुद से नहीं बोलते, पूछी गई बात पर जवाब देते हैं। पीड़िता के घर से जब भी कोई अजनबी बाहर निकलता है तो आरोपियों के पुरुष परिजन नीचे सड़क पर बैठे मिलते हैं। रोकते नहीं, लेकिन राम-राम से अपनी ओर ध्यान खींचते हैं। शुरुआत में सीधा जवाब नहीं देते, लेकिन कुछ देर बाद अपने तर्क रखने लगते हैं।
गांव के लोग दोनों ही पक्षों से दूर हैं और मीडिया से भी। 600 की जनसंख्या वाले इस गांव में 350 से अधिक ठाकुर, 50 ब्राह्मण और बाकी दलित हैं। गांव वालों की खामोशी रहस्यमयी है। कुरेदने पर लगता है कि चुप्पी टूटने को वक्त का इंतजार है या खामोशी इसलिए है कि वक्त खुद सवालों का जवाब देगा।
पीड़िता पिता ने कहा- का बोले, अब बचो का है? सब खत्म होगो...
पीड़िता के परिवार की सीबीआई जांच की मांग पूरी होने के सवाल पर पीड़िता के पिता चुप्पी तोड़ते हैं। कहते हैं, ‘अब का बोले, अब बचो का है? बिटिया के संग सब खत्म होगो है। न्याय मिलौगो, नहीं मिलौगो, पर भरोसो है। बिटिया तो वापस आनो सो रही। उसका क्रियाक्रम कर देते सो मन को संतोष हो जातो।’ पीड़िता के पिता को जब बताया गया कि चारों आरोपियों को ब्रेन मैपिंग और पोलीग्राफ टेस्ट के वास्ते सीबीआई गांधीनगर लेकर गई है तो वह लंबी सांस भरकर बोले, ‘जब बिटिया को न्याय मिलो, तब संतोष होगो।’
राजनीतिक दलों की सक्रियता को वह अपने परिवार के भले के लिए करार देते हैं। हालांकि हर सवाल का सहजता से जवाब देते हैं, लेकिन परिवार पर संदेह की बात पर वह कोई प्रतिक्रिया नहीं देते हैं। ज्यादा कुरेदे जाने पर कहते हैं कि बिटिया तो चली गई, लेकिन अब लोग इस कोशिश में हैं कि हमारी रही सही इज्जत भी चली जाए। पीड़िता के परिवार की सुरक्षा में रामपुर सीआरपीएफ सेंटर की एक कंपनी (125 जवान) तैनात है।
आरोपी के दादा बोले- हमाई भी बिटिया थी, कैसे मरी जांच हो...
सड़क किनारे बिछी खाट को शायद आगंतुक के लिए खाली छोड़कर ही मुख्य आरोपी संदीप के परिजन सड़क पर बैठे थे। संदीप के दादा राकेश सिंह बहुत कुरेदे जाने पर बोले, ‘मुलजिम का पक्ष कौन सुनौ? तुम लोगन ने हमार छौरों को तो फांसी चढ़ानो का इंतजाम कर दियो।
हमाई बिटिया थी वो, पर मरी कैसे इसकी जांच हो।’ उसके परिजन खेत में दरांतियों से फसल काट रहे थे तो उन्होंने प्रतिरोध क्यों नहीं किया? चाचा भतीजे मिलकर बुरा काम कर सकते हैं क्या? पहले अकेला संदीप नामजद किया, फिर तीन नाम और बढ़ा दिए। बिटिया पैरों से चलकर बाइक पर बैठी, थाने गई और फिर टेंपो में बैठकर अस्पताल तक गई। फिर रीढ़ की हड्डी कैसे टूट गई, जीभ कैसे कट गई और बयान कैसे दे दिए?
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