(पवन कुमार). ‘यह रूढ़ीवादी सोच है कि जो महिलाएं घर में रहती हैं, वे काम नहीं करतीं। इसे बदलना चाहिए। महिलाएं घरों में पुरुषों के मुकाबले अधिक काम करती हैं।’ यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने वाहन दुर्घटना के एक मामले में मुआवजा राशि बढ़ाते हुए की। दरअसल, दिल्ली के दंपती की सड़क हादसे में मौत हो गई थी।
उसकी दो बेटियों ने मुआवजा मांगा। मोटर एक्सीडेंट क्लेम ट्रिब्यूनल ने बीमा कंपनी को आदेश दिया कि वह 40 लाख रु. मुआवजा दे। कंपनी ने दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी। हाई कोर्ट ने महिला के गृहिणी होने के कारण आय का न्यूनतम निर्धारण करते हुए मुआवजा घटाकर 22 लाख कर दिया। फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी।
गृहिणी का घरेलू कार्यों में समर्पित समय व प्रयास पुरुषों की तुलना में अधिक
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एनवी रमना, एस अब्दुल नजीर और सूर्यकांत ने मुआवजा तय करते समय बच्चियों की मां द्वारा गृहिणी के रूप में किए जाने वाले काम को तरजीह दी। साथ ही मुआवजा राशि 22 लाख से बढ़ाकर 33 लाख रुपए कर दी। जस्टिस रमना ने अलग से लिखे फैसले में कहा है कि महिलाओं का घरेलू कार्यों में समर्पित समय और प्रयास पुरुषों की तुलना में अधिक होता है।
गृहिणी भोजन बनाती हैं, किराना और जरूरी सामान खरीदती हैं। बच्चों की देखभाल से लेकर घर की सजावट, मरम्मत और रखरखाव का काम करती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो महिलाएं खेतों में बुवाई, कटाई, फसलों की रोपाई और मवेशियों की देखभाल भी करती हैं। उनके काम को कम महत्वपूर्ण नहीं आंका जा सकता। इसलिए गृहिणी की काल्पनिक आय का निर्धारण करना अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा है।
कानून व न्यायालय गृहिणियों के श्रम, सेवाओं और बलिदान के मूल्य में विश्वास करते हैं। यह कानूनन इस विचार की स्वीकृति है कि भले ही महिलाएं घरेलू काम अवैतनिक करती हैं, लेकिन उनके काम का परिवार के आर्थिक विकास में योगदान होता है। वे राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में भी योगदान देती हैं। इस अहम तथ्य के बावजूद गृहिणियों को पारंपरिक रूप से आर्थिक विश्लेषण से दूर रखा गया है। हमारा दायित्व है कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप इस मानसिकता में बदलाव किया जाए।
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