सुहाना सफर और ये मौसम हसीं… आज फिर जीने की तमन्ना है… 30 अगस्त की तारीख हिंदी सिनेमा के महान गीतकार शैलेंद्र के जन्मदिवस की तारीख है। इस साल उनकी यह 97वीं सालगिरह है। उनका जन्म रावलपिंडी में हुआ था और पालन-पोषण मथुरा में।
लड़कपन में ही उन्होंने अपनी नोटबुकों में कुछ न कुछ लिखना शुरू कर दिया था। थोड़े बड़े हुए तो मुशायरों-कवि सम्मेलनों में भाग लेना प्रारंभ किया। ऐसे ही किसी मुशायरे में राजकपूर की नजर उन पर पड़ी। वे उनकी आग उगलती कविता ‘जलता है पंजाब’ से इतने प्रभावित हुए कि अपनी पहली फिल्म ‘आग’ के लिए उसे खरीदने का प्रस्ताव दे दिया। लेकिन शैलेंद्र तो ठहरे वामपंथी। वे वामपंथी संगठन इप्टा के सदस्य थे। तो उन्होंने कविता बेचने से साफ इनकार कर दिया।
राजकपूर ने कहा था- मन बदले तो आ जाना
शैलेंद्र का जवाब सुनकर राजकपूर मुस्कुराए और केवल इतना ही कहा, 'अगर तुम्हारा मन बदल जाए तो मेरे पास आ जाना।' सालों बाद इसी क्षण को उनकी मूवी 'मेरा नाम जोकर' में फिक्शनल रूप से दिखाया गया।
आखिरकार शैलेंद्र को जाना पड़ा राजकपूर के पास
शैलेंद्र को उस वक्त राजकपूर के घर का दरवाजा खटखटाना पड़ा जब उनकी पत्नी उनके पहले बच्चे की मां बनने वाली थीं और वे अपने करियर में कुछ स्थिरता चाह रहे थे। तब राजकपूर ‘बरसात’ मूवी पर काम कर रहे थे। फिल्म के लिए अब भी दो गानों की जरूरत थी।
शैलेंद्र ने एक तो ‘पतली कमर है…’ गाना लिखा। दूसरा गीत ‘बरसात में तुससे मिल हम सजन…’ लिखा जो भारतीय चित्रपट के इतिहास में अमरगीत बन गया। इनके लिए राजकपूर ने शैलेंद्र को 500 रुपए दिए थे। दोनों का संगीत शंकर-जयकिशन ने कम्पोज किया था।
राजकपूर और शैलेंद्र ने 21 फिल्मों में काम किया
यह तो राजकपूर और शैलेंद्र के बीच बने रिश्ते की एक शुरुआत भर थी। उसके बाद दोनों ने कई साल तक करीब 21 फिल्मों में काम किया और एक से बढ़कर एक गीतों के रचना की। इनमें अल्हड़ फिल्म ‘अनाड़ी’, मार्मिक फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’, संवेदना के चरम को छूने वाली ‘संगम’ और क्लासिक फिल्मों का दर्जा हासिल ‘मेरा नाम जोकर’।
मनमौजी और अक्खड़ किस्म के थे शैलेंद्र
शैलेंद्र ने सलिल चौधरी, एसडी बर्मन, रवि शंकर और अन्य कई फिल्म निर्माताओं व कम्पोजर्स के साथ काम किया। शैलेंद्र मनमौजी या कह सकते थे, थोड़े अक्खड़ स्वभाव के थे और उनके साथ काम करने वाले फिल्म निर्माताओं व कम्पोजर्स को उनके इस स्वभाव की आदत-सी हो गई थी।
उनके मनमौजी स्वभाव का एक किस्सा है। आनंद भाइयों ने ‘गाइड’ फिल्म के गीत लिखवाने का काम पहले हसरत जयपुरी को दिया था, लेकिन बाद में उन्होंने शैलेंद्र से बात की। शैलेंद्र इस बात से खफा हो गए कि हसरत जयपुरी से पहले उनसे संपर्क क्यों नहीं किया गया और उन्होंने गीत लिखने के लिए फीस काफी बढ़ा दी। हालांकि देव आनंद इस बढ़ी हुई फीस के लिए भी तैयार हो गए।
शंकर-जयकिशन के साथ भी है रोचक किस्सा
शैलेंद्र का शंकर-जयकिशन के साथ भी एक रोचक किस्सा है। इस संगीतकार जोड़ी ने उन्हें एक फिल्म देने का वादा किया था, लेकिन बाद में वे यह बात भूल गए। तो शैलेंद्र ने उन्हें व्यंग्यात्मक टोन में एक नोट भेजा - ‘छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते हैं, कहीं तो मिलोगे तो पूछेंगे हाल…।’ संगीतकार जोड़ी इसका भाव समझ गई और जल्दी ही उन्हें रंगोली (1962) फिल्म देने की सिफारिश की।
हेमा-धरम की लगातार छठी हिट थी 'जुगनू'
शैलेंद्र की जिंदगी का अंतिम हिस्सा त्रासदी से जुड़ा है और इसलिए उनकी जयंती पर मैं इसके विस्तार में जाने के बजाय इसी दिन यानी 30 अगस्त 1973 को रिलीज हुई प्रमोद चक्रवर्ती की ब्लॉकबस्टर मूवी ‘जुगनू’ की बात करूंगी। यह उस साल की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली दूसरी फिल्म साबित हुई।
यह वह दौर था जब धर्मेंद्र और हेमामालिनी अलग-अलग भी और जोड़ी के रूप में भी हिट पर हिट फिल्म दे रहे थे। ‘जुगनू’ जोड़ी के रूप में हिट होने वाली लगातार छठी फिल्म थी और इसके साथ ही यह जोड़ी अपने वक्त की निर्विवादित स्टार जोड़ी बन गई।
आउटडोर लोकेशन पर परवान चढ़ा प्यार
उन्होंने प्रमोद चक्रवर्ती की चार फिल्में (नया जमाना, जुगनू, ड्रीम गर्ल और आजाद) और दुलाल गुहा की तीन फिल्में (दोस्त, प्रतिज्ञा और दिल का हीरा) कीं। उन्होंने और भी कई फिल्म निर्माताओं के साथ हिट फिल्में दीं। आउटडोर लोकेशन पर दोनों का रोमांस सिरे चढ़ा और अपनी परिणति पर पहुंचा। हेमामालिनी पर मेरे द्वारा लिखी बायोग्राफी में वे इस बात को स्वीकार करती हैं कि ‘जुगनू’ की शूटिंग और धरमजी के साथ सभी फिल्में खास थीं।
श्राद्धपक्ष में थम जाती थी फिल्म इंडस्ट्री
अब जबकि श्राद्धपक्ष को शुरू होने में तीन दिन बाकी हैं, याद किया जा सकता है कि 70 और 80 के दशक में कैसे फिल्म उद्योग श्राद्ध के दिनों में थम-सा जाता था। उन दिनों न तो किसी नई फिल्म की घोषणा की जाती थी, न कोई मुहूर्त, न कोई उत्सव, न विज्ञापन, न ट्रेलर। फिल्म रिलीजिंग का सवाल ही नहीं उठता था। मुझे याद है कि उस दौरान कई सिनेमाघरों में पुरानी हिट फिल्में दिखाई जाती थीं। फिर 90 के दशक में छोटी फिल्मों ने इस अपशकुनी महीने को अवसर मानना शुरू किया। और फिर नई सदी आई और नई पीढ़ी ने तो कौवे के लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ी, दूर क्षितिज में विचरण के लिए उड़ चली।
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